पर्वत पाटिया में आध्यात्मिक अमृतवर्षा – आत्मिक सुख की खोज पर प्रवचन,क्षणभंगुर संसारिक सुख बनाम शाश्वत आत्मिक सुख" पर आध्यात्मिक वचन
संयम, श्रद्धा और साधना ही आत्मिक सुख के द्वार हैं” – प.पू. श्रास्वत सागर जी म.सा.

सूरत,पर्वत पाटिया बाड़मेर जैन श्री संघ एव सर्वमंगलमय वर्षावास समिति कुशल दर्शन दादावाड़ी चातुर्मास में प. पू. खरतरगच्छाचार्य संयम सारथी शासन प्रभावक श्री जिन पीयूषसागर जी म.सा.के शिष्य श्री श्रास्वत सागरजी म सा .आज प्रवचन में कहा की “संसारिक सुख की क्षणभंगुरता एवं आत्मिक सुख की खोज” के विषय पर
जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई को उजागर करते हुए कहा —
“मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है, फिर भी आज का मानव वास्तविक सुख से वंचित है। संसाधन होते हुए भी शांति नहीं, सुविधाएँ होते हुए भी तृप्ति नहीं।”
उन्होंने स्पष्ट किया कि –
आज व्यक्ति पुण्य के बल से उत्तम शरीर, श्रेष्ठ जन्म और भौतिक संसाधन प्राप्त कर लेता है, लेकिन फिर भी वह उन्हें भोग नहीं पाता।
क्यों? क्योंकि उसका शरीर रोगग्रस्त हो गया है, मन चिंता और ईर्ष्या में उलझा हुआ है और आत्मा भटकाव में खो गई है।उदाहरण देते हुए फरमाया की व्यक्ति के मिठाई सामने है, लेकिन अगर उसे मधुमेह है तो वह उसे खा नहीं सकता।
• ए.सी. कूलर फ्रिज सब सुविधा है, लेकिन उससे एलर्जी या जुकाम हो जाए तो वही सुख पीड़ा बन जाता है।
• पेट खराब हो तो छप्पन भोग भी अरुचिकर हो जाते हैं। साथ ही आगे एक अत्यंत सरल परंतु मार्मिक उदाहरण देते हुए कहा:
“दो व्यक्ति साथ कुल्फी खा रहे हैं – जैसे ही एक व्यक्ति की कुल्फी खत्म होती है और दूसरा धीरे-धीरे खा रहा होता है, तो पहले के मन में ईर्ष्या जन्म लेती है – ‘इसकी कुल्फी अभी तक कैसे चल रही? उस क्षण तात्कालिक सुख ‘ईर्ष्या युक्त दुख’ में बदल जाता है।”
यही संसार का सत्य है –
जहाँ एक कुल्फी भी सुख-दुख का कारण बन सकती है, वहाँ जीवन में बड़े स्तर पर क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे दोष अनगिनत दुखों को जन्म देते हैं।
शास्त्रकारों और भगवंतों ने स्पष्ट कहा है —
“शारीरिक सुख कभी स्थायी नहीं होता। यह परिस्थिति और शरीर पर निर्भर है, और इसलिए पराधीन भी है।”
पुण्य से संसाधन मिल सकते हैं, अवसर मिल सकते हैं, लेकिन भोग की क्षमता तभी आती है जब शरीर स्वस्थ, मन शांत और आत्मा सजग संसार का सुख अपूर्ण, अस्थायी और सीमित है।
सुख की खोज अगर केवल बाहरी साधनों में हो, तो वह अंततः दुख में परिवर्तित हो सकती है।
• संसारिक सुख उपस्थिति के बाद भी अनभोग्य हो सकते हैं
• तुलना, ईर्ष्या और लालच सुख को विष में बदल देते हैं
• सच्चा सुख आत्मा में है, जो संयम और साधना से प्राप्त होता है
• आत्मिक सुख न समय से मिटता है, न किसी से छिनता है
• संयम, समत्व और साधना ही आत्मिक आनंद के द्वार हैं
“सुख की तलाश बाहर मत करो। आत्मा के भीतर उतरिए
जहाँ संयम, श्रद्धा और साधना का संग है, वहीं सच्चा, शाश्वत और निर्विकार सुख है।
संसारिक सुखों की दौड़ में आत्मिक आनंद को मत खोओ ।
प.पू. श्री समर्पित सागर जी म .सा. ने व्यक्ति के जीवन को “गंभीरता, आत्मविश्वास और साधना का रहस्य” को बताते हुए प्रवचन में कहा की
“व्यक्ति में लघुता (humility) और लघिता ग्रंथि (inferiority complex) — इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है।”
???? लघुता एक सकारात्मक गुण है, जो व्यक्ति को विनम्रता और सेवा की भावना से भरती है और उसे विकास के मार्ग पर आगे बढ़ाती है।
???? जबकि लघिता ग्रंथि व्यक्ति को आत्महीनता, नकारात्मक सोच और हीन मानसिकता की ओर धकेलती है। साथ ही उन्होंने फरमाया की “व्यक्ति को चाहिए कि वह लघिता को त्यागकर आत्मविश्वास का संचार करे।
जो व्यक्ति यह मानता है कि ‘मैं कर सकता हूँ’, ‘मैं योग्य हूँ’, वही वास्तव में साधना के पथ पर बढ़ सकता है।”
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा:
“जब पनिहारी कुएँ से पानी लेने जाती है, तो वह सबसे पहले मटका कुएँ में डालती है।
मटका जब भीतर उतरता है, और उसका सर झुकता है तब ही कुआँ उसे जल देता है।इसी तरह जब व्यक्ति भीतर की ओर गंभीरता से उतरता है, तभी आत्मज्ञान का जल प्राप्त होता है।”एक साधक को भी आत्मा के कुएँ में गहराई से उतरने के लिए गंभीरता, मर्यादा और समर्पण की आवश्यकता होती है।
यह साधना तभी सफल होती है, जब भीतर आत्मबल और संयम का संगम हो। साथ ही एक और ऐतिहासिक दृष्टांत द्वारा आत्मविश्वास का मूल्य समझाया:
“बीरबल एक ऐसे देश में पहुँचे जहाँ का राजा अकबर का विरोधी था। फिर भी उस राजा ने बीरबल को अपने दरबार में बुलाया।
राजा ने पूछा — ‘तुम्हारा राजा अकबर और मेरे में क्या अंतर है । वहाँ के राजा को बीरबल का उत्तर पसंद आया और अपने दुश्मन का महामंत्री होने के बाद भी पुरष्कार देके सन्मान के साथ वापस भेजा तो अकबर को संदेह हुआ और बीरबल को देशद्रोही की सजा सुना दी तब बीरबल ने राजा अकबर से कहा मुझे एक बार मेरी बात रखने का मौका दे तब बीरबल बोला की मैंने वहाँ कहा की मेरा राजा अकबर पूनम के चंद की तरह है और आप दूज के चाँद हो उन्होंने क्या समझा में नहीं जानता परंतु मैंने बोला की आप पूनम के चाँद 16 कलाओ से युक्त चाँदनी बिखरने वाले पूर्ण हो जबकि दूज का चाँद धीरे धीरे अपने पूर्ण आकार से कम होता जाता है और वो ख़त्म हो जाता ये बात सुन अकबर ने बीरबल को गले लगा दिया तब बीरबल ने बोला राजन
मैं अपने कार्य से राष्ट्र और राजा दोनों का हित करता हूँ।’
यही आत्मबल और समर्पण, व्यक्ति को श्रेष्ठ बनाता है ।
इसलिए साधक को अपनी दृष्टि बाहर से हटाकर भीतर लगानी चाहिए।”!अर्थात जीवन में
• लघुता सकारात्मक है, लघिता ग्रंथि नकारात्मक
• आत्मविश्वास साधना की पहली सीढ़ी है
• गंभीरता और मर्यादा से ही आत्मा की गहराई तक पहुँचा जा सकता है
• संयम और श्रद्धा साधना की आत्मा हैं
• एक साधक को भीतर उतरने की क्षमता बनानी होगी
• भौतिक सुख क्षणभंगुर हैं, आत्मिक सुख ही शाश्वत है ।
संकलन कर्ता:-चम्पालाल बोथरा