खरतरगच्छ परंपरा: आचार और आत्मोद्धार का प्रतीक – व्यक्ति के जीवन में सद्गुरु की भूमिका:- समर्पित सागर जी
खरतरगच्छ परंपरा: आचार और आत्मोद्धार का प्रतीक

सूरत,बड़मेर जैन श्री संघ सर्वमंगलमय वर्षावास 2025 कुशल दर्शन दादावाड़ी, पर्वत पाटिया सूरत में पूज्य छत्तीसगढ़ श्रृंगार, संयम सारथी, शासन प्रभावक, खरतरगच्छाचार्य श्री जिनपीयूषसागर सूरीश्वर जी म.सा. के शिष्य श्री समर्पित सागर जी ने प्रवचन में बताया कि भगवान महावीर का पंथ आचरण और संयम की रीढ़ पर आधारित रहा है।
लेकिन भगवान के निर्वाण के लगभग 1000 वर्षों बाद, जब साध्वाचार में शिथिलता की महामारी ने जैन साधु-साध्वियों को ग्रसित किया, तब चैत्यवासी यति परंपरा का जन्म हुआ। इतिहास साक्षी है कि उस समय गिनती के ही श्रमण बच पाए जो आचार, दर्शन और संयम के मूल सिद्धांतों पर अडिग रहे।
तभी ग्यारहवीं सदी में वर्धमानसूरिजी के नेतृत्व में बुद्धिसागरसूरिजी और जिनेश्वरसूरिजी ने एक सुव्यवस्थित आचारपरक गण की स्थापना की – जिसने ‘दुर्लभ राजा’ की सभा में “खरा” (अर्थात शुद्ध, निर्मल, अपराजित) उपाधि प्राप्त कर “खरतरगच्छ” नाम पाया।
खरतरगच्छ परंपरा – एक ऐसा पंथ जो शास्त्र, तप, त्याग और सत्य पर आधारित है। जिसके गुरुओं ने चैत्यवासियों को तर्क, तप और तत्वज्ञान से पराजित किया और सम्यक्त्व के सच्चे दीपक बने। इसी गौरवमयी परंपरा में युगप्रधान दादागुरुदेव श्री ज़िन्दतसूरी जी ने आगे बढ़ाया और लाखों लोगों को जैन धर्म का बोध कराया। आज वर्तमान युग के प्रेरणास्तंभ – पूज्य खरतरगच्छाचार्य श्री जिन पीयूषसागर सूरीश्वर जी म.सा. के शिष्य श्री समर्पित सागरजी म.सा. द्वारा व्यक्त भाव गहन और अनुभवजन्य हैं:
“समर्थता से कार्य संभव होता है, लेकिन सद्गुरु से जुड़ने से असंभव भी संभव बनता है।”
जब कोई जीव साधना के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता है, तब पूर्वजन्म के कर्म उसकी राह में बाधाएं उत्पन्न करते हैं। लेकिन जब वह सद्गुरु के संपर्क में आता है, तब HEART सिद्धांत के अनुसार:
* H = He is the Sadguru who Helps Every Moment (सद्गुरु ही होते हैं जो हर क्षण सहायता करते हैं)
* हमें हमारे दोषों से जागरूक करते हैं,
* सच्चे आत्मज्ञान का बोध कराते हैं,
* और हमारी आत्मा को सरल समर्पण व साधनामय जीवन की ओर मोड़ते हैं।
समर्पितसागरजी म.सा. के विचारों में वर्तमान युग के लिए सत्य और समाधान छिपा है – कि आध्यात्मिक जीवन में गति तब आती है जब व्यक्ति किसी सम्यकदर्शी, आचरणशील सद्गुरु से जुड़ता है। आज का समाज यदि खरतरगच्छ की आचार्य परंपरा और सद्गुरु श्री पीयूषसागर सूरीश्वर जी म.सा. के अमृत समान विचारों को आत्मसात करे, तो न केवल आत्मोन्नति, बल्कि सामाजिक संतुलन और धार्मिक जागृति का नवविकास सुनिश्चित हो सकता है।
आइए, इस सद्गुरु परंपरा और गौरवशाली गच्छ इतिहास से प्रेरणा लेकर हम भी अपने जीवन को संयम, समर्पण और साधना की दिशा में आगे बढ़ाएं।
पूज्य श्री शाश्वत सागर जी म.सा. ने अपने प्रवचन में कहा:
परमार्थ का पथ ही परम सुख का स्रोत है और संपत्ति की आसक्ति से मुक्त होकर जब कोई जीव जिनशासन व धर्म आराधना में अपनी पूंजी अर्पण करता है, तब वह आत्मोन्नति की ओर अग्रसर होता है। पूज्य शाश्वतसागर जी म.सा. ने आज के प्रवचन में “त्याग और समर्पण” की प्रेरणा देते हुए पेठड़ शाह का उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने एक और उदाहरण देते हुए कहा कि वास्तुपाल-तेजपाल जैसे श्रद्धालु जब धर्मकार्य हेतु समर्पित भाव से प्रयास करते हैं, तभी अनुकंपा देवी जैसी दिव्य शक्तियां भी मार्ग प्रशस्त करती हैं।
उन्होंने चेताया कि —
* पाप लक्ष्मी (झूठ, हिंसा, टैक्स चोरी से अर्जित धन) दुखदायी होती है।
* श्रापित लक्ष्मी वो है जो बैंक लॉकरों में पड़ी रहती है, न उपयोगी न उपभोग की।
* भाग्य लक्ष्मी बिना मेहनत के आती है,
* जबकि पुण्य लक्ष्मी धर्म के अनुसार न्यायपूर्वक अर्जित होती है।
सच्चा श्रावक वही है जो अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करे अर्थात “त्याग ही सच्चा वैभव है। लेने वाले इतिहास में खो गए, पर देने वाले आज भी इतिहास में पूज्य हैं और उन्हें आज भी याद किया जाता है।”
बाड़मेर जैन श्री संघ के वरिष्ठ सदस्य चम्पालाल बोथरा ने बताया कि सैकड़ों श्रावक-श्राविका प्रवचन का श्रवण कर जिनवाणी को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प करते हैं।
संकलन :चम्पालाल बोथरा, सूरत